18 वीं लोकसभा के लिए चुनाव तो अगले साल होंगे लेकिन देश के सभी दल अभी से मिशन 2024 में जुट चुके हैं. लंबी कवायद के बाद पटना में 15 विपक्षी दल जुट रहे हैं जो भाजपा नीत एनडीए गठबंधन को सत्ता से बाहर करने की रणनीति पर काम करेंगे. उपरी तौर पर देखें तो ऐसा लगता है कि विपक्षी दल गठबंधन करने के मोर्चे पर बीजेपी से आगे निकल रहे हैं लेकिन ये पूरा सच नहीं है. 2014 के चुनाव में 282 और 2019 के चुनाव में अकेले दम पर 303 सीटें जीतने वाली बीजेपी भी मिशन 2024 के रास्ते पर निकल चुकी है...पार्टी ये समझ रही है कि 2019 के बाद हुए कई विधानसभा और लोकसभा उपचुनावों ने हालात बदल दिए हैं लिहाजा उसे भी ऐसे साझीदारों की जरूरत हैं जिनके सहारे वो अपनी सत्ता बरकरार रख सके.
देखा जाए तो नए संसद भवन के उद्घाटन समारोह में इसकी झलक मिली थी. इस समारोह में 25 पार्टियां शामिल हुईं जबकि 21 विपक्षी दलों ने इसका बहिष्कार किया. आंकड़ों के आइने में देखें तो समारोह का समर्थन करने वाले पार्टियों की लोकसभा में संख्या 376 और राज्यसभा में 131 है जबकि वहिष्कार करने वाली पार्टियों की लोकसभा में संख्या 168 और राज्यसभा में 104 रही. दूसरे शब्दों में कहें तो नए संसद भवन का उद्घाटन बीजेपी के लिए उत्साहजनक रहा हालांकि ये जरूरी नहीं है कि समारोह में शामिल हुई सभी पार्टियों चुनावी मैदान में बीजेपी के साथ कदमताल करेंगी ही. ऐसे में ये समझना दिलचस्प होगा कि बीजेपी फिलहाल किन संभावनाओं पर काम कर रही हैं और कौन-कौन से दल उसके साथ आ सकते हैं.
सबसे पहले बात उन पार्टियों की जो बदली हुई परिस्थितियों में बीजेपी के साथ आने को तैयार हो सकती हैं. सबसे पहले बात कर्नाटक की
कर्नाटक: जेडीएस की ओर देख रही है बीजेपी
साल 2019 के मुकाबले कर्नाटक में स्थितियां बदल गई हैं. पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी को यहां 25 सीटें मिलीं थीं. बाद में एक निर्दलीय सांसद ने भी उसे समर्थन दे दिया था. तब कांग्रेस-जेडीएस ने मिल कर चुनाव लड़ा लेकिन दोनों को एक-एक सीट ही मिली थी. लेकिन बीते मई महीने में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने बंपर जीत हासिल कर राज्य में न सिर्फ बीजेपी के लिए बल्कि जेडीएस के लिए भी खतरे की घंटी बजा दी. जाहिर अब बीजेपी को लोकसभा सीटों की संख्या घटने की आशंका है. ऐसे में वो पूर्व पीएम एच डी देवगोड़ा की पार्टी जेडीएस की ओर देख सकती है. दूसरी तरफ जेडीएस की हालत ये है कि उसे अपना अस्तित्व बचाना है. यही वजह है कि संसद भवन के उद्घाटन समारोह में शामिल देवगौड़ा अपने बेटे कुमारस्वामी के साथ शामिल हुए. दोनों पार्टियां पहले भी दो बार साथ रह चुकी हैं.
आंध्र और तेलंगाना में नायडू-कल्याण का मिलेगा साथ ?
साल 2018 तक चंद्रबाबू नायडू की टीडीपी NDA का हिस्सा रही है लेकिन 2019 का चुनाव दोनों ने अलग-अलग लड़ा और दोनों ने ही नुकसान झेला. नायडू को न सिर्फ राज्य की सत्ता से बाहर होना पड़ा बल्कि लोकसभा चुनाव में भी उन्हें महज 3 सीटें ही मिलीं. जबकि पिछले विधानसभा चुनाव यानी 2014 में उन्हें 175 में से 103 सीटें मिली थीं. और लोकसभा में 25 में से 14 सीटें मिली थीं. तब बीजेपी के पास भी दो सीटें थीं लेकिन 2019 में तो बीजेपी का खाता भी नहीं खुला. ये आंकड़े बताते हैं कि राज्य में दोनों ही पार्टियों के सामने वजूद को बचाने की चुनौती है. यही वो बात जो दोनों को करीब ला सकती हैं. बीते दिनों मोदी ने मन की बात कार्यक्रम में तेलगू देशम पार्टी के संस्थापक एनटी रामाराव का जिक्र कर उन्हें नमन किया था. इसके अलावा बीजेपी को तेलुगु सुपर स्टार पवन कल्याण की पार्टी जनसेना को भी साथ लाने की कोशिश करनी होगी ताकि जगनमोहन रेड्डी की पार्टी वाईएसआर कांग्रेस से मुकाबला हो सके. कमोबेश आंध्र जैसी स्थिति ही बीजेपी के लिए तेलंगाना में भी है.
पंजाब में अकालियों का साथ मिलना है संभव
देखा जाए तो NDA का सबसे पुराना साझीदार अकाली दल ही है. 1997 से चल रहा दोनों दलों का गठबंधन साल 2020 में किसानों के आंदोलन के मुद्दे पर टूट गया. लेकिन पंजाब के विधानसभा चुनाव में दोनों दलों का जो हाल हुआ है उससे दोनों के एक बार फिर से साथ आने की संभावना बनती है. क्योंकि दोनों ने जब अलग होकर विधानसभा चुनाव लड़ा तो अकाली दल को महज 3 सीटें मिलीं जो पिछले चुनाव में 15 थीं. बीजेपी को भी महज 2 सीट मिलीं जो पिछली बार 3 थी. 13 सीटें वाले इस राज्य में साल 2019 में जब दोनों पार्टियों ने मिलकर चुनाव लड़ा था तब दोनों को दो-दो सीटें मिली थीं. इस बार तो दोनों के सामने कांग्रेस के अलावा आम आदमी पार्टी की भी चुनौती है. ऐसे में संभावना है कि वजूद को बचाने के लिए दोनों दल साथ आ सकते हैं. अकाली दल के वरिष्ठ नेता इंदर सिंह ग्रेवाल ने इसका इशारा भी किया है और कहा है कि यदि बीजेपी साझीदारों को उचित सम्मान देती है तो फिर राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं है. दूसरी तरफ प्रकाश सिंह बादल के निधन पर खुद प्रधानमंत्री अंतिम संस्कार में शामिल होने भी पहुंचे थे.
बिहार : कुशवाहा, पासवान, मांझी और साहनी पर निगाह
अब बात बिहार की. बीजेपी के लिए यहां मुश्किलें दूसरे राज्यों के मुकाबले ज्यादा हैं. यही वजह है कि नीतीश कुमार के एनडीए से अलग होने के बाद अकेली पड़ी बीजेपी अपना कुनबा बढ़ाने की पुरजोर कवायद कर रही है. बिहार में लोकसभा की 40 सीटें हैं. पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी,जेडीयू और लोजपा साथ में थी तो 40 में से 39 सीटों पर बीजेपी गठबंधन का कब्जा हो गया. अकेले बीजेपी को 17 सीटें मिलीं. जेडीयू को 16 सीटें और 6 सीटें लोजपा को मिलीं. लेकिन अब जेडीयू महागठबंधन के पाले में है और लोजपा भी दो भागों में बंट गई है. ऐसी स्थिति में बीजेपी की कोशिश लोजपा के चाचा-भतीजा को साथ लाने की है. उपेन्द्र कुशवाहा भी जेडीयू से अलग हो ही चुके हैं उन्हें भी बीजेपी अपने पाले में लाने की कोशिश कर ही रही है. जीतनराम मांझी से लेकर मुकेश साहनी तक के बीजेपी साथ आने की संभावना दिख रही है. ये पार्टियां छोटी जरूर हैं लेकिन राज्य की राजनीति पर इनका प्रभाव है. मसलन उपेन्द्र कुशवाहा का प्रभाव 13 से 14 जिलों में माना जाता है. राज्य में मांझी समुदाय की आबादी भी करीब 4 फीसदी है.
यूपी में दूसरे राज्यों के मुकाबल बीजेपी खुद को अच्छी स्थिति में देख रही है. सुभासपा अध्यक्ष ओपी राजभर भी ऐसे संकेत दे रहे हैं कि वो फिर से NDA का दामन थाम सकते हैं. अखिलेश यादव से बात न बन पाने की स्थिति में राजभर अपना ठिकाना NDA में ही देख रहे हैं. खुद बीजेपी भी उन्हें अहमियत देती दिख रही हैं. हालांकि इस चक्कर में संजय निषाद असहज दिख रहे हैं. वे इन दिनों अपनी हर छोटी-बड़ी जनसभा में राजभर पर सियासी तंज कसने से नहीं चुक रहे हैं.
इसके अलावा कुछ दूसरे राज्यों में बीजेपी अपनी स्थिति ठीक समझ सकती है. मसलन महाराष्ट्र में शिंदे गुट वाली शिवसेना उसके साथ में बरकरार है तो वहीं तमिलनाडु में AIADMK के साथ बीजेपी का गठबंधन हो ही चुका है. रही बात ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक से लेकर तेलंगाना के मुख्यमंत्री वाईएसआर, मायावती से लेकर गुलाम नबी आजाद तक की तो ऐसा कई बार संकेत मिल चुका है कि जरूरत के वक्त वे बीजेपी की मदद कर सकते हैं.
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